इश्क पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश “ग़ालिब” जो लगाये न लगे और बुझाये न बने
बीकानेर, (समाचार सेवा) नीरज जोशी। इश्क पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश “ग़ालिब” जो लगाये न लगे और बुझाये न बने। पत्रकारिता दिवस पर आज जिन लोगों ने भी पत्रकारों के बारे में कुछ भी सोचा उनका आभार। मेरा मानना है कि पत्रकार ना तो छोटा-बडा होता है और ना ही मजदूर। पत्रकारीय कार्य की भी कोई कीमत आंकी नहीं जा सकती।
एक पत्रकार सदैव अपनी खबर से लोगों को उनके फायदे के लिये जागरूक करने का प्रयास करता है, अपने फायदे या नुकसान की परवाह किए बगैर।
इश्क पर ज़ोर नहीं है …हां जिन सेठों ने पत्रकारिता को धंधा बना लिया है, उन्होंने सर्कुलेशन या टीआरपी के आधार पर अपने यहां काम मांगने आये लोगों का वेतन जरूर तय कर दिया है। अब जिनको धंधेवालों के साथ मिलकर पत्रकारिता करनी है तो वे वैसी पत्रकारिता करनी होगी जैसी वे चाहे। ऐसे में वे अपने को छोटा धंधेबाज-बडा धंधेबाज समझे, अपनी मजदूरी तय करे।
जिस दिन एक सच्चे पत्रकार की जेब में जनहित के लिये प्रसारित की जा सकने वाली चार खबरें होती है उस दिन वह पत्रकार अपने को सबसे बडा अमीर आदमी मानता है। वैसे भी आजादी से पूर्व के दिनों में जिन पत्रकारों ने अपना सबकुछ होम करके भी अपने अखबार निकाले अगर वे घाटे नफे की बात सोचते तो देश आज भी गुलाम रहता।
पत्रकारिता एक जज्बा है। इश्क है। जनहित के इस इश्क के जज्बे को प्रत्यक व्यक्ति में कायम रखना जरूरी है। मिर्ज़ा ग़ालिब ने ठीक कहा है, इश्क पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश “ग़ालिब” जो लगाये न लगे और बुझाये न बने । पत्रकारिता एक मिशन है और मिशन सदैव सभी लोगों को उनके बुनियादी हक दिलाने के लिये लिये चलाये जाते हैं।
खुशी इस बात की है कि आज सोशल मीडिया के जमाने में पत्रकारों को अपनी बात प्रचारित व प्रसारित करने का बडा प्लेटफार्म मिल गया है। उम्मीद की यह किरण निश्चित रूप से देश को वर्तमान की अनेक अन्य गुलामियों से आजादी दिलाने में मददगार साबित होगी। पत्रकारिता का जज्बा रखने वाले सभी लोगों की आर्थिक स्थिति अचछी हो इसी कामना के साथ, पत्रकारिता दिवस पर सभी संबंधितों को बधाई।
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