होती है बेटी की ही विदाई, किसने ये रीत बनायी?
होती है बेटी की ही विदाई, किसने ये रीत बनायी?
घर- परिवार, सब बदल जाता है..
अपना था जो कल तक, सब पराया हो जाता है…
बिताया हो जहाँ बचपन,
उस आँगन का कण-कण पीछे छूट जाता है.
रिश्ते-नाते और सखी-सहेली ही नहीं..
एक बेटी का तो जैसे अस्तित्व ही बदल जाता है..
नये लोग, नया वातावरण
ओढ़े नित दिन, नया आवरण
नये घर की नयी रीत…
कैसे छूटे सबसे प्रीत?
तितली जैसी चंचल थी जो,
सब करते,अब स्थिरता की उम्मीद,
ढेरों अपेक्षा है… और अनेक परीक्षा है,
होती है बेटी की ही विदाई, किसने ये रीत बनायी?
माँ बाप से मिलने जाने को भी,
कई घरों में अनुमति लेनी पड़ती है..
त्योहारों पर परिजनों की,
भले कितनी याद सताती है..
नये परिजनों संग वो त्योहार,
तब भी क्या खूब मना लेती है..
अनजान थे जो रिश्ते कभी,
उन संग वो उम्र बिता देती है.
ये बेटियां इतना कैसे निभा लेती है?
होती है बेटी की ही विदाई, किसने ये रीत बनायी?
ख़ुशक़िस्मत है वो आत्मनिर्भर बेटी,
जिनका परिवार से अलग भी वर्चस्व है ,
विवाह बाद, भले बदले घर-बार.. पास -पड़ोस…
कर्मक्षेत्र में तो अपना अलग व्यक्तित्व है,
मान है.. सम्मान है..,
अपने नाम से पहचान है,
वरना, ससुराल में तो प्रारम्भ में,
नया ही नाम है, नयी ही पहचान है !!!
होती है बेटी की ही विदाई,किसने ये रीत बनायी?
-शिप्रा मोहता