वेतन के अभाव में ग्रामसेवा सहकारी समितियों के व्यवस्थापकों के घर मुश्किल हो रहा चूल्हा जलाना
सहकारिता विभाग के व्यवस्थापकों को सरकारी कर्मचारी नहीं मानते अधिकारी
बीकानेर, (samacharseva.in)। वेतन के अभाव में ग्रामसेवा सहकारी समितियों के व्यवस्थापकों के घर मुश्किल हो रहा चूल्हा जलाना, बीकानेर संभाग के श्रीगंगानगर जिले के सहकारी समितियों के करीब तीन दर्जन व्यवस्थापक ऐसे हैं जिनको करीब 10 महीने से वेतन नहीं मिला है और उनके घरों में चूल्हा भी जलाना मुश्किल हो गया है। विभाग के अधिकारी इन व्यवस्थापकों को सरकारी कर्मचारी भी नहीं मानते हैं।
बीकानेर में पदस्थापित सहकारिता विभाग के संयुक्त रजिस्ट्रार रविन्द्र पुरोहित से इस बाबत बात की गई तो उन्होंने ये तो स्वीकार किया कि भले ही व्यवस्थापकों को सरकारी कर्मचारी नहीं माना जा रहा हो लेकिन उनकी समस्याओं को सुनना और निराकरण करना विभाग का दायित्व है। पुरोहित का कहना है कि वे इस मामले पर फोकस करेंगे और व्यवस्थापकों की इस दुविधा का कोई हल निकलवाने का प्रयास करेंगे।
वहीं श्रीगंगानगर के सेंट्रल कोआॅपरेटिव बैंक के प्रबंध निदेशक भूपेंद्र सिंह ज्याणी का कहना है कि व्यवस्थापक सरकार के कार्मिक नहीं हैं। वे तो संस्था पंजीकरण एक्ट के तहत गठित एक पंजीकृत सोसाइटी के प्रबंधक है जिनको राज्य सरकार ने नियुक्त ही नहीं किया। ऐसे में सरकार की उनके प्रति कोई जवाबदेही नहीं है। वे अपनी संस्था से अपना वेतन प्राप्त करें। जब ज्याणी से यह पूछा गया कि सोसायटी के पास कोई बजट नहीं हो तो क्या ये व्यवस्थापक बिना वेतन ही रहेंगे। इस सवाल पर प्रबंध निदेशक का कहना था कि व्यवस्थापक रोजगार पैदा करे। कमाई करे और अपना वेतन खुद प्राप्त करे।
सहकारिता आंदोलन से जुड़े जानकार लोगों का कहना है प्रबंध निदेशक जैसे जिम्मेदार ओहदे पर बैठे अधिकारी को मेहनतकश व्यवस्थापकों की इस समस्या का समाधान करने के स्थान पर उन्हें निरुत्साहित करना पद की गरिमा के अनुकूल नही लगता। बताया गया कि सहकारिता आंदोलन की नींव कहे जा सकने वाले व्यवस्थापक चाहे वर्षों से जी तोड़ मेहनत करके राजस्थान में सहकारिता आन्दोलन को सत्य बना रहे हैं लेकिन उनका विभाग उनको सरकारी कर्मचारी मानने को तैयार नहीं है और दशकों बाद भी ग्राम सेवा सहकारी समितियों के ये व्यवस्थापक भूख से झगड़ा कर रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि सहकारिता विभाग की सबसे निचली, सबसे छोटी लेकिन सबसे मजबूत इकाई ग्राम सेवा सहकारी समितियां हैं। इनमें व्यवस्थापक के पद पर राज्य सरकार के नियम कायदों के अनुसार नियुक्तियां होती है। व्यवस्थापक किसानों को खाद, बीज, राशन सहित अल्पकालिक तथा दीर्घकालिक ऋण भी प्रदान करते हैं। सोसाइटी के नाम से विख्यात इन संस्थाओं को संचालित कर आम किसान को राहत देने का काम करने वाले ये व्यवस्थापक अपने ही घर में बेगानों को तरह हैं। इनका अपना विभाग इनको सरकारी कर्मचारी नहीं मानता, राज्य सरकार इनको अपने बजट में से तनख्वाह नहीं देती।
इन पर सरकार के सभी नियम कायदे और कार्यवाहियां तो लागू होते हैं लेकिन इनको वेतन नहीं मिले तो सरकार का इससे कोई लेना देना नहीं। सरकार की अनुशासनात्मक कार्यवाही, निलंबन आदि की तलवार तो व्यवस्थापकों पर निरंतर लटकी रहती है जबकि वेतन की बात आने पर प्रबंध निदेशक उन्हें सरकारी मुलाजिम तक मानने को तैयार नहीं है।
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