पॉलिटिक्स में पप्पूवाद 

pappuvaad

आचार्य ज्योति मित्र

जमाना गया गांधीवाद, समाजवाद, मार्क्सवाद, लेनिनवाद, लोहियावाद, अधिनायकवाद, साम्यवाद या पूंजीवाद का अब आप कहेंगे ये राष्ट्रवाद का जमाना है तो भैया आप जरूरत से ज्यादा आशावाद में जी रहे हैं, आपके इन सब वादों पर भारी पड़ रहा है पॉलिटिक्स में पप्पूवाद।

इस इक्कीसवीं सदी में यदि किसी वाद का बोलबाला है तो वो है पप्पूवाद।  इतिहास गवाह है पप्पू हमेशा से ही सार्वभौमिक रहे हैं। दुनिया के किसी भी देश मे चले जाइए पीने को पानी भले ही न मिले लेकिन पप्पू सब जगह आपको मिल ही जाएंगे।

अब जहां पप्पू होंगे तो पप्पूवाद भी होगा। जो लोग कहते है कि पप्पूवादी खतरनाक होते है वे वास्तव में अज्ञानी है। पप्पू आत्मघाती हो सकता है लेकिन किसी का नुकसान करना उसके बस की बात नही होती। पप्पू के वार हमेशा ही आत्मघाती होते है। पप्पू के एक्शन पर पप्पूवादियों का रिएक्शन ही इस वाद की पहचान है।

पप्पू घोषित तौर पर धर्मनिरपेक्ष है लेकिन रंग रूप बदलती गजल की तरह कब वह साम्प्रदायिक हो जाए कुछ कह नही सकते। जहां अनिश्चितता का भाव है वो ही तो पप्पूवाद है। पप्पूपन हमारे साहित्य, समाज व राजनीति में गहरे तक है।

इस देश में क्या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आप जहां नज़र घुमाओगे आपको पप्पू ही पप्पू नजर आएंगे। चाहे महाशक्ति यूएसए हो या कोरिया पप्पूवाद के दर्शन तो आपको हो ही जाएंगे।

अभी हाल ही में दिल्ली में हुआ इनडोर एयरकंडीशनर धरना, कर्नाटक चुनाव के बाद वहां के मुख्यमंत्री का यह बयान कि वे जनता नही सिर्फ कांग्रेस के प्रति उत्तरदायी है पप्पूवाद के जीवन्त उदाहरण है।

इंदिरा गांधी के जमाने से ही पप्पूवाद सर उठाने लगा था लेकिन उस लोह महिला ने इसे ज्यादा सीरियस नही लिया। साहित्य में भी पप्पूवाद नया नही है।

कवियों में विशेषकर यह वाद कुछ ज्यादा ही हावी रहता है। श्रोताओं को पकड़ पकड़ कर अपनी रचनाओं का पान कराने वाले कवि ही असल मे साहित्य में पप्पूवाद का प्रतिनिधित्व करते है। पप्पूवाद का गहराई से अध्ययन करने वाले शोधकर्ता बताते है कि पप्पूवादी कविता में रस का घालमेल हो जाना ही इसकी असल पहचान है।

पप्पूवादी कविता में श्रंगार रस में वीभत्स रस का संचार पाठक महसूस करता है तो हास्य रस में पाठक के करुण रस टपक सकता है। समाज मे भी पप्पूवादियों का बोलबाला है। सच्चे पप्पूवादी समाजसेवी समाजसेवा के नाम पर चंदा लेते है, लेकिन खर्च असामाजिक कामो में कर बैठते है।

ये काम से ज्यादा प्रचार में यकीन करते है। समाजसेवा करते करते अपनी दबी हुई राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने का प्रयास भी करते है। राजनीति के पंडितो की नजर में यही राजनैतिक पप्पूवाद है ।

कुछ लोग भाग्यशाली होते है जिन्हें पप्पूपन विरासत में मिल जाता है तो वे पप्पूगिरी शुरू कर देते है। पप्पूपन में जहां लाचारी का भाव है वही पप्पूगिरी दबंगई का प्रतिनिधित्व करती है।

जब से पप्पूपन हाइलाइट हुआ है लोग इसका श्रेय भी अमिताभ बच्चन को दे रहे है। बताते है कि किसी पप्पू के पास होने का उन्होंने इतना प्रचार कर दिया कि देश भर के पप्पूओ के रिश्तेदारों की मारे शर्म के शामत आ गई, लेकिन हमारे पप्पू इस बात से खुश थे की उनका प्रचार सदी का महानायक कर रहा है।

दूसरे लोगो की तरह मैं भी पप्पूवाद से आतंकित हूँ मुझे डर है कि अलगाववाद के इस दौर में पप्पूवादी कही पप्पूस्तान की मांग न कर बैठे ।

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उस्ता बारी के अंदर , बीकानेर